Friday, June 25, 2010

छवि

आज ऐसे ही एक ख़याल आया|दिल किया की उसे लफ्ज़ दे दूं| इस असंखयों की भीड़ में अगर दूर से देखे तो सभी एक भीड़ का हिस्सा है| पर करीब जाकर देखे तो हर एक की अलग कहानी अलग किस्सा है| उसका अपना अलग वजूद है|उसके जानकारों की नज़रों में वो कुछ खूबी कुछ खामियों के पुतले से बढकर कुछ है|उसका अपना एक किरदार है जिसे कुछ कृत्य शोभा  देते है कुछ नहीं देते|शेक्सपीयर ने दुनियां को रंगमंच हर इन्सान को अभिनेता और जनक को कठपुतलीकार बताया है|यहाँ हर कोई अपना किरदार अदा कर रंगमंची दुनियां से विदा लेता है| परन्तु क्या यह जीवन आसान परिभाषा से परिभाषित हो सकता है|क्या जीवन की पेचीदगी इतनी कम है| क्या भाव,भावनाएं,मंशा इतनी सरल है|शायद नहीं,तभी जब कोई अपना जानकार हमारे  मस्तिष्क  में बनी उसकी छवि से हटकर कोई कार्य करता है तो हम चौंक जाते है|और जब अपनी छविनुसार कोई कार्य करना हो और ना करे तो हमें अचम्भा होता है|क्यों ऐसा है की हम कभी छोटे से निर्णय से पहेले भी काफी मंथन करते है और कभी बड़े से बड़ा फैसला भी चुटकियों में ले लेते है|कुछ लोग इसे अर्थशास्त्रियों द्वारा रचित आवश्यकता-आपूर्ति के सिद्धांत से जोड़ सकते है|कुछ धर्मपरायण लोग समय की बल शक्ति से|पर यह जवाब सच में बहला भी नहीं पाते है|इन सवालों पर मंथन करने बैठा तो सिर्फ सवालों के भंवर में फंसता  चला गया |शायद कई और सवाल है जिनका जवाब शायद मद्दद कर पाता|पर मेरा किसी कारण वश सामना नहीं हुआ |और सामना हुआ होगा तो वो मेरी समझ से परे होंगे|
सामूहिक व्यवहार और व्यक्तिगत रिश्ता कितना अलग होता है| इस अंतर का ख्याल आते ही गुत्थी और जटिल हो गई|की आखिरकार एक इंसान की छवि किस प्रकार उसे कुच कार्यों करने से बाधित कर देती हैऔर कुछ कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित करने लगती है|जब इन्सान भीड़ में खड़ा है तब उसे भेडचाल  ही चलनी है|चूँकि वह समूह का हिस्सा है समूह को दिया गया कार्य उसका कर्तव्य है चाहे वह कार्य उसकी प्रकृति से कितना ही विपरीत क्यों ना हो|परन्तु तब वह अपनी प्रकति(छवि)के अनुसार कार्य करे तो उपहास का भागीदार बनता है|परन्तु व्यक्तिगत तौरपर उसकी प्रकति से बनी उसकी छवि से विपरीत कार्य करने पर वह उपहास का भागीदार बनता है|इसीलियें चाहे इन्सान अकेला हो या भीड़ में वह अंततः भेड़ चाल ही चलता है क्यों |समाज शास्त्री इस पर अपनी टिप्पणियां  देते आए  है की समाज इन सभी कृत्यों का जनक है|परन्तु क्या व्यक्तिगत स्तर पर भी यही बात लागु होती है ?
अब एक ही इंसान की कई लोगों की नज़रों में अलग अलग छवि होती है| और कभी कभी एक ही इंसान की काल व परिस्थितिनुसार किसी के दिमाग में भी अलग अलग छवि होती है|जैसे कोई इंसान जब दार्शनिक तर्क करें तो उसे सांसारिक एवं सामाजिक नियमो का ज्ञाता कहा जाता है और हंसी-ठिठोली करे तोह ना समझ!! शायद इस तरह की छवि निर्माण एवं उलझी बटों का कारण हमारा सामूहिक दर्शन है| हम हर इंसान को किसी समूह से जोड़े बिना नहीं देख सकते|ऐसे समूह जिनके गुण-अवगुण सभी किसी ना किसी मायने में हम जानते है|किसी में इनमे से चंद गुण पाकर उस व्यक्तिविशेष को उस समूह से जोड़ लेता है|और जब वाही इंसान जब किसी और समूह के गुण प्रदर्शित करता है तो हम उसे दुसरे समूह से भी जोड़ लेते है|
मगर हमारा यह यातना तब अचम्भे में बदल जाता है जब किसी  काल व परिस्थिति पर उन दोनों समूहों के गुण-अवगुण की आपस में तकरार हो जाये|और ऐसे में हम जिस समूह के अधिक गुण व्यक्ति विशेष में पते है उस समूह को विजयी घोषित कर देते है और दुसरे समूह से उसके रिश्ते को नकार देते है |यहाँ में उदाहरण के तौर पर महाभारत के पत्र अर्जुन का जिक्र करना चाहूँगा|अर्जुन को हम सभी एक महान धनुर्धर के रूप में पहचानते  है|परन्तु गौर करे तो परिस्थितियों के कारण अर्जुन के किरदार की महाभारत में महारथियों के समूह से निकटता बदती गई|परन्तु क्या उसमे यही गुण था| में नहीं मानता|अर्जुन एक प्रेमी था श्री कृष्ण की बहन  सुभद्रा  का हरण कर विवाह उसका प्रेम कृत्य था|वह एक भावुक पिता था अभिमन्युं का शव देख कर प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए अपने प्राणों की प्रतिज्ञा लेना इसे साबित करता है|वो बहुत बड़ा रसिक था द्रोपदी का उसकी ओर अत्यधिक आकर्षण इसका प्रमाण है|वो नृत्य एवं संगीत कला का धनी था उत्तरा का नृत्य एवं संगीत प्रशिक्षक बनना इस बात को बताता है|परन्तु रण में उसके  युद्ध कौशल  ने उसके बाकी सभी गुणों को नकार दिया|और उसे महान धनुर्धर महारथियों के समूह में रख दिया गया|इसी तरह हम भी लोगो के कई गुणों को नकार कर उन्हें एक समूह का हिस्सा बना देना चाहते है और पाता नहीं क्यों  उन्हें कैसे भी भीड़ में शामिल कर देना चाहते है|
कश्ती है काठ की,जलधारा चीर पार लगाए|
काठ जब आग बने,जलधारा उसे बुझाए|
जल-काठ दोनों में गुण-अवगुण है समाए|
कौन बेहतर यह बरबस काल ही बताए |