Monday, September 20, 2010

मेनका

विश्वामित्र  और मेनका की कहानी का ज़िक्र तो अक्सर सुनने में आ जाता है | जब भी कोई व्यक्ति किसी और व्यक्ति को कमज़ोर करने के लिए नारी सौंदर्य का प्रयोग करता है| तब तो यह कहानी उपमा अलंकार बनकर समक्ष खड़ी  हो जाती है| आखिरकार देवो के राजा देवराज इन्द्र ने धरती के एक सन्यासी राजा के तप से भयभीत हो स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा की मद्दद से उसका तप भंग किया| विश्वामित्र मेनका के रूप,सोन्दर्य के जादू से अपनी वासना पर नियंत्रण नहीं रख पाए और उनका कठोर तप भंग हो गया| बस इतनी सी कहानी है एक ध्येय और ध्येय प्राप्ति कहानी समाप्त |
पर आज ऐसे ही इस कहानी के कुछ आगे के पहलु  पर विचार कर रहा था| तो एक असमंजस की स्थिति  में पहुँच  गया | आखिरकार हम उस कहानी का जहां अंत सोच रहे है|या सोचना चाहते है वो तो शायद कहानी की बरबस शुरुआत  है|पर क्या है मेनका एक अभिमानी  सत्ता लोभी पुरुष के हाथ की कटपुतली?? जिसने अपनी सुन्दर देह का प्रयोग कर एक तेजस्वी सन्यासी को तप से वासना की राह पर आने को मजबूर कर दिया| निसंदेह यहाँ वासना और आत्मसंयम   की जंग में संयम  हार  गया और वासना की दासता स्वीकार कर ली  गई| जहां तक  यह कहानी चलती  है इसमें  सिर्फ  पुरुष के भाव- भावना इन्ही  का ज़िक्र होता  है| इन्द्र का चरित्र चित्रण होता है|विश्वामित्र  का भी चरित्र समक्ष आता है| परन्तु इस कथा का एक और किरदार मेनका का जो चरित्र सामने आता है वो मेरे ख्याल से वो एक जिस्म का पेशा करने वाली मालिक की गुलाम वेश्या से अलग नहीं है|और कई लोग मेनका को रूपमती वेश्या के रूप में ही अपनी सोच में लाते है| पर यह उस कला की धनी अप्सरा का बहुत बड़ा अपमान है|मेनका इन्द्र के दरबार की सबसे रूपमती और नृत्य कला में अग्रिम अप्सरा थी|
कहा जाये तो विश्वामित्र का तप भंग होने के पश्चात क्या हुआ| मेनका कहाँ गयी, वासना आवेग से बहार आने पर विश्वामित्र ने मेनका को श्राप क्यूँ नहीं दिया|क्यूँ अपनी तप शक्ति से उन्होंने षड्यंत्र रचियता इन्द्र को श्राप नहीं दिया| शायद कभी यह सोचना आवश्यक नहीं समझा |परन्तु अगर समय धारा के विपरीत इतिहास को देखा जाये |शकुंतला राजा भरत की माता ,इतिहास की जानी-मानी दुष्यंत-शकुंतला की प्रेम कहानी की नायिका को देखे |यह शकुंतला मेनका की सुपुत्री थी| जिसे जन्म देने के बाद शायद वो ऋषि कण्व को सौप कर कहीं चली गयी|मेनका ने ऋषि विश्वामित्र का तप भले ही इन्द्र के कहने पर तोडा था|लेकिन उसकी ऋषि के प्रति प्रेम आसक्ति ने उसके मन की मलिनता को धो दिया था|और कहते है ऋषि और मेनका कई वर्षों तक साथ रहे|मेनका ने एक आदर्श नारी तरह ऋषि की सेवा की|उसने स्वर्ग के सभी सुख त्याग दिए | स्वर्ग में पली सुकोमल मेनका ऋषि के साथ सन्यासिन का कठोर जीवन व्यतीत करने लगी|यह उसका अथाह प्रेम ही था जो उसे ऋषि के पास रोके हुए था |शायद यह मेनका का भी प्रताप था जो उसके नाती भरत में दिखी पड़ता था |मेनका को अपने जीवन तप का कभी कोई फल नहीं मिला|कोई ख्याति नहीं मिली|
एक प्रश्न आता है आखिर क्यूँ  ऋषि उसे छोड़ कर चले गए| शायद ऋषि को वैराग्य फिर अपने और खिचने लगा होगा|परन्तु एक गर्भवती स्त्री को यूँ छोड़ कर जाना उचित था |लोक-लाज से उसकी रक्षा करना ऋषि का कर्तव्य नहीं था|क्या मेनका के प्रेम का,उसकी सेवा का उसे ये पुरुस्कार मिला की उसे अपनी ममता का लोक-लज्जा की खातिर त्याग करना पड़ा|परन्तु किसी ने कभी विश्वामित्र पर ऊँगली नहीं उठाई|चूँकि यह एक स्त्री के अधिकार व भावना की बात थी|जो हमारे समझ के लिए कोई मायने नहीं रखती|
हमारे समाज में मेनका का क्या चित्रण है यह किसी से छुपा नहीं है |उसके  हर गुण को छुपा कर सिर्फ एक कृत्य से उसे एक उपाधि दे दी गयी है| जैसा की हर व्यक्ति के साथ होता है| हम सत्य का पूर्ण रूप देखने के कभी इच्छुक नहीं होते है|सदैव अपनी लालसा अथवा जरूरत जितना सत्य देख हम सत्य ज्ञान का दवा करते है|इसीलिए कभी हम सत्य का अच्छा तो कभी बुरा भाग चूक जाते है |
वैसे भी हम स्त्रियों को नायिका के रूप में देखना कभी पसंद नहीं करते है|हमारे समाज  में आज भी स्त्रियों को अनुनय-विनय का प्रसाधन,अथवा घर गृहस्थी संचालन के कार्य  में ही स्वीकार किया जाता है|हालाँकि आज स्त्रियां उससे काफी आगे बढ़ गयी है|परन्तु आज भी हमारी सोच वही अटकी हुए है|हम स्त्रियों के गुणों की गाथा सुनना पसंद नहीं करते|बल्कि पुरुषों की शौर्यगाथा,प्रेम-प्रसंग में बहुत दिलचस्पी लेते है|
आज मेनका हर नारी का दर्पण है| कभी ना कभी किसी ना किसी तरह किसी ना किसी प्रयोजन से पुरुष उससे क़ुरबानी मांग ही लेता है| चाहे अपना मायका छोड़ ससुराल जाने की रीत हो |बच्चों के जन्म पर अपनी आजादी त्यागने की बात हो|चाहे शादी के बाद अपने पहनावे को बदलने, पर्दा करने आदि रीती रिवाज |पुरुष अपने स्वार्थ के लिए उसका प्रयोग करता है|और नारी सहर्ष मन जाती है|फिर भी अपनी प्रेम भावना से वो सभी को सुख देने का प्रयास करती रहती है|

खो गयी मेनका कहाँ इतिहास के पन्नों में 
शायद बस गयी वो हर नारी के जीवन में
त्याग कर अपना हर सुख वो देखो
कर रही उजियारा घर-घर में

Friday, June 25, 2010

छवि

आज ऐसे ही एक ख़याल आया|दिल किया की उसे लफ्ज़ दे दूं| इस असंखयों की भीड़ में अगर दूर से देखे तो सभी एक भीड़ का हिस्सा है| पर करीब जाकर देखे तो हर एक की अलग कहानी अलग किस्सा है| उसका अपना अलग वजूद है|उसके जानकारों की नज़रों में वो कुछ खूबी कुछ खामियों के पुतले से बढकर कुछ है|उसका अपना एक किरदार है जिसे कुछ कृत्य शोभा  देते है कुछ नहीं देते|शेक्सपीयर ने दुनियां को रंगमंच हर इन्सान को अभिनेता और जनक को कठपुतलीकार बताया है|यहाँ हर कोई अपना किरदार अदा कर रंगमंची दुनियां से विदा लेता है| परन्तु क्या यह जीवन आसान परिभाषा से परिभाषित हो सकता है|क्या जीवन की पेचीदगी इतनी कम है| क्या भाव,भावनाएं,मंशा इतनी सरल है|शायद नहीं,तभी जब कोई अपना जानकार हमारे  मस्तिष्क  में बनी उसकी छवि से हटकर कोई कार्य करता है तो हम चौंक जाते है|और जब अपनी छविनुसार कोई कार्य करना हो और ना करे तो हमें अचम्भा होता है|क्यों ऐसा है की हम कभी छोटे से निर्णय से पहेले भी काफी मंथन करते है और कभी बड़े से बड़ा फैसला भी चुटकियों में ले लेते है|कुछ लोग इसे अर्थशास्त्रियों द्वारा रचित आवश्यकता-आपूर्ति के सिद्धांत से जोड़ सकते है|कुछ धर्मपरायण लोग समय की बल शक्ति से|पर यह जवाब सच में बहला भी नहीं पाते है|इन सवालों पर मंथन करने बैठा तो सिर्फ सवालों के भंवर में फंसता  चला गया |शायद कई और सवाल है जिनका जवाब शायद मद्दद कर पाता|पर मेरा किसी कारण वश सामना नहीं हुआ |और सामना हुआ होगा तो वो मेरी समझ से परे होंगे|
सामूहिक व्यवहार और व्यक्तिगत रिश्ता कितना अलग होता है| इस अंतर का ख्याल आते ही गुत्थी और जटिल हो गई|की आखिरकार एक इंसान की छवि किस प्रकार उसे कुच कार्यों करने से बाधित कर देती हैऔर कुछ कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित करने लगती है|जब इन्सान भीड़ में खड़ा है तब उसे भेडचाल  ही चलनी है|चूँकि वह समूह का हिस्सा है समूह को दिया गया कार्य उसका कर्तव्य है चाहे वह कार्य उसकी प्रकृति से कितना ही विपरीत क्यों ना हो|परन्तु तब वह अपनी प्रकति(छवि)के अनुसार कार्य करे तो उपहास का भागीदार बनता है|परन्तु व्यक्तिगत तौरपर उसकी प्रकति से बनी उसकी छवि से विपरीत कार्य करने पर वह उपहास का भागीदार बनता है|इसीलियें चाहे इन्सान अकेला हो या भीड़ में वह अंततः भेड़ चाल ही चलता है क्यों |समाज शास्त्री इस पर अपनी टिप्पणियां  देते आए  है की समाज इन सभी कृत्यों का जनक है|परन्तु क्या व्यक्तिगत स्तर पर भी यही बात लागु होती है ?
अब एक ही इंसान की कई लोगों की नज़रों में अलग अलग छवि होती है| और कभी कभी एक ही इंसान की काल व परिस्थितिनुसार किसी के दिमाग में भी अलग अलग छवि होती है|जैसे कोई इंसान जब दार्शनिक तर्क करें तो उसे सांसारिक एवं सामाजिक नियमो का ज्ञाता कहा जाता है और हंसी-ठिठोली करे तोह ना समझ!! शायद इस तरह की छवि निर्माण एवं उलझी बटों का कारण हमारा सामूहिक दर्शन है| हम हर इंसान को किसी समूह से जोड़े बिना नहीं देख सकते|ऐसे समूह जिनके गुण-अवगुण सभी किसी ना किसी मायने में हम जानते है|किसी में इनमे से चंद गुण पाकर उस व्यक्तिविशेष को उस समूह से जोड़ लेता है|और जब वाही इंसान जब किसी और समूह के गुण प्रदर्शित करता है तो हम उसे दुसरे समूह से भी जोड़ लेते है|
मगर हमारा यह यातना तब अचम्भे में बदल जाता है जब किसी  काल व परिस्थिति पर उन दोनों समूहों के गुण-अवगुण की आपस में तकरार हो जाये|और ऐसे में हम जिस समूह के अधिक गुण व्यक्ति विशेष में पते है उस समूह को विजयी घोषित कर देते है और दुसरे समूह से उसके रिश्ते को नकार देते है |यहाँ में उदाहरण के तौर पर महाभारत के पत्र अर्जुन का जिक्र करना चाहूँगा|अर्जुन को हम सभी एक महान धनुर्धर के रूप में पहचानते  है|परन्तु गौर करे तो परिस्थितियों के कारण अर्जुन के किरदार की महाभारत में महारथियों के समूह से निकटता बदती गई|परन्तु क्या उसमे यही गुण था| में नहीं मानता|अर्जुन एक प्रेमी था श्री कृष्ण की बहन  सुभद्रा  का हरण कर विवाह उसका प्रेम कृत्य था|वह एक भावुक पिता था अभिमन्युं का शव देख कर प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए अपने प्राणों की प्रतिज्ञा लेना इसे साबित करता है|वो बहुत बड़ा रसिक था द्रोपदी का उसकी ओर अत्यधिक आकर्षण इसका प्रमाण है|वो नृत्य एवं संगीत कला का धनी था उत्तरा का नृत्य एवं संगीत प्रशिक्षक बनना इस बात को बताता है|परन्तु रण में उसके  युद्ध कौशल  ने उसके बाकी सभी गुणों को नकार दिया|और उसे महान धनुर्धर महारथियों के समूह में रख दिया गया|इसी तरह हम भी लोगो के कई गुणों को नकार कर उन्हें एक समूह का हिस्सा बना देना चाहते है और पाता नहीं क्यों  उन्हें कैसे भी भीड़ में शामिल कर देना चाहते है|
कश्ती है काठ की,जलधारा चीर पार लगाए|
काठ जब आग बने,जलधारा उसे बुझाए|
जल-काठ दोनों में गुण-अवगुण है समाए|
कौन बेहतर यह बरबस काल ही बताए |